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मौत और आलोचना

मौत का फरिश्ता घूम रहा है शहर में,

कब कौन आ जाए उसकी चपेट में।

घरों में बैठ गए है सब इस खौफ़नाक मंज़र से,

जान जानी है एक एक करके इस डर से। 

ऐसे मंज़र में भी कुछ लोग मना रहे हैं किसी की मौत का जश्न, 

अरे जब जाना है तुमको भी तो फिर कैसा है ये जश्न।

जानती हुँ नहीं सुधरेंगे ये लोग, फिर इनको कुछ कहना ही है बेकार

स्थिति ही इनकी दिमाग की जो हो गई है बेकार।

नाराज़ तो खुदा सबसे ही है, फिर क्यों उठाते हो ऊँगली किसी और पर,

वो सब देख रहा है अब तो देखों खुद का दामन को झाड़कर।

शमशान और क़ब्रिस्तान आबाद हो रहे है धीरे-धीरे,

ज़िंदा लोग शहर को खाली कर रहें है धीरे-धीरे।

बचे कुछ दिन है अपने, लोगों की भलाई में संवार दो,

खुदा का डर है अगर तो लोगों का बुरा करना छोड़ दो।






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