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कहानी मिडल क्लास फ़ादर की, जो है बाज़ीगर

'मिडल क्लास फादर' एक ऐसा फादर जो अपने बच्चों को उस लेवल के लिए तैयार करने की हर वो मुमकिन कोशिश करता है जो उसे उसकी कामयाबी तक ना पहुंचा सकी। वजह फिर चाहें जो भी हो उनकी नामकामयाबी का मगर अपने बच्चों को अच्छे स्कूल, अच्छी सोसाइटी, एक बेहतर फ्यूचर देने के लिए अपनी हर पूरी कोशिश करते हैं। 

कुछ फादर ऐसे होते है जो अपने बच्चों के लिए जो करना पड़े वो करते है फिर गलत हो या सही। कुछ फादर अपने उसूलों के पक्के होते हैं। कुछ फादर्स बच्चों की नज़र में मिलिनीयर होते है और कुछ फादर्स इतने ईमानदार और सीधे होते है कि उनके लिये काम बस उतना ही ज़रूरी है जिससे की दो वक्त की रोटी और जीने के लिए सांसे। उनके लिए ज़िन्दगी में आगे बढ़ना शायद कोई मायने नहीं रखता, उनके लिए जैसा चल रहा वैसा चलने दो वाला प्रोसेस होता है। हर पिता की अपनी एक कहानी होती है कि वो ज़िन्दगी में आगे कैसे बढ़ें है, कैसे उन्होंने वो मुकाम हासिल किया। कैसे उन्होंने ज़िन्दगी को बेहतर बनाया। 

मेरे पापा इनमें से बिल्कुल नहीं है जिनके पास कोई कहानी हो जिंदगी में के किसी मुकाम को हासिल करने के लिए। लेकिन आज उनके लिए ' 'फादर्स डे' इस खास मौके पर एक कहानी मैं आप सबको बताउंगी। 

मेरे पापा आज़मगढ़ के एक छोटे से गाँव में पले-बढ़ें, मिट्टी के कच्चे घरों में रहने वाले, प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले एक सीधे-साधे और तेज़ दिमाग़ के शानदार आदमी है। 

उन्होंने अपनी स्कूलिंग प्राइमरी स्कूल से की जहां पढ़ाई उस ज़माने में बहुत अच्छी तरह से की जाती थी। उस समय प्राइमरी स्कूल की उतनी वैल्यू थी जितनी कि आज उन स्कूलों की है जो अच्छी एजुकेशन के लिए मशहूर है। मेरे पापा अक्सर कहा करते है पहले पढ़ाई होती थी पढ़ने के लिए लेकिन आज की पढ़ाई, पढ़ाई कम और बिज़नेस ज़्यादा बन चुका है। मेरे पापा पढ़ने में काफी अच्छे है खासकर उनकी maths,। पढ़ाई में इतने अच्छे होने बावजूद जब वो बार-बार 12th qualify नहीं कर सकें तो वो लखनऊ शहर में आकर रहने लगे। अपनी उम्र में गांव से शहर में आकर रोज़ी रोटी करने वाले पापा पहले शख्स है। जो सबसे पहले शहर में आकर अपना इलेक्ट्रिक का काम शुरू किया। शुरू में वो अपने मामू के घर रहते थे, पर रिश्तेदार को तो हम सब जानते ही है जहां शायद ही कोई सकता। 


कुछ समय तक अपने मामू के यहां रहने के बाद पापा को आवास विकास में नौकरी मिली। सरकारी नौकरी नहीं थी बस सविंदा के तौर पर समझ लीजिए 25-30 साल उन्होंने वहीं घिस दिए। बस फायदा इतना हुआ कि कई सालों तक आवास विकास वालों ने उन्हें सरकारी क्वाटर दे दिया। जहां वो आकर रहने लगे। बचपन में हम लोग अम्मी के साथ गांव में ही रहा करते थे। हम और हमारे भाई-बहन गांव के प्राइमरी स्कूल में कभी नहीं गए हमारे बाप ने हमें गांव से कुछ देर एक कस्बा था वहां के इंगलिश मीडियम स्कूल में भेजा करते थे। वो स्कूल गांव से काफी दूर था हमें एक वैन लेने और छोड़ने आया करती थी। मैंने वहां नर्सरी और केजी तक पढ़ाई की। 

जिसके बाद से कुछ ऐसा हुआ कि हम लोग लखनऊ आकर पापा के साथ रहने लगे और यहां एक छोटे से स्कूल में 5th क्लास तक पढ़ाई की। मुझे याद है जब मैं 4th या 5th में पढ़ती थी तो उनकी सैलरी महज 7 हज़ार रुपये हुआ करती थी। जिसमें से वो कुछ पैसे दादा-दादी को गांव में भेजा करते थे। गाँव में हमारे पास नाम के लिए सिर्फ एक घर और थोड़ी सी ज़मीन ही है। खेती के नाम पे कुछ भी नहीं। इस वजह से वहां के खर्चे भी पापा को ही देने पड़ते थे। घर के सबसे बड़े फ़र्ज़ होने के नाते ये करना ही था। मुझे नहीं पता वो दो घर का खर्चा कैसे 7 हज़ार में मैनेज किया करते थे। 

पापा की ज़िंदगी का किस्सा कुछ ऐसा है कि वो किस्मत की आड़े आकर बस ज़िन्दगी गुज़ार रहें हैं। जो हालात उनके 30-40 साल पहले थे वहीं आज भी है बल्कि पहले से ज़्यादा मुश्किल ही लगती है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने हालात सुधारने के लिए कोशिश नहीं की है उनसे जितना हो पाया उन्होंने किया। 

पापा कहा करते है कि उनके शहर आने के बाद उनके सभी साथी लखनऊ में जब अपने किसी काम से आया करते थे तो उनके यहां ही रुकते थे। उनके साथी आज उनसे कहीं आगे निकल चुकें है, एक सकूँन की ज़िंदगी जी रहें हैं। गांव के वो साथी पापा के कोई भी खास दोस्त नहीं होते थे, क्योंकि बस गांव के थे तो उन्होंने इंसानियत के नाते अपने घर में पनाह दी। मगर वो मतलबी साथी अपने मतलब निकलते ही खिसक लिए। आज वो साथी पापा से इतने आगे है कि पापा को छोटा समझते है। क्योंकि आज उनके पास शहर में उनका एक घर है एक स्टेटस बन चुका है। 

आज पापा की ज़िंदगी पहले से मुश्किल इसलिए बन चुकी है क्योंकि उन्होंने आने वाले मुश्किलों के बारे में नही सोचा, उन्होंने कल के लिए कुछ नहीं सोचा, आवास विकास क्वार्टर मिलने के बाद वो मुतमइन हो गए कि उनके पास घर है पर वो भूल गए कि उनके पास उनका अपना घर नहीं है। आज उनकी सैलरी 7 हज़ार से बढ़कर 25 हज़ार है मगर उनके पास ना उनका घर है ना कोई सरकारी क्वाटर अब वो एक किराये के घर में रहते हैं जहां आधी सी ज़्यादा सैलरी उनकी घर के किराए में निकल जाती है।

कहानी का मक़सद सिर्फ इतना है कि उस पल में जीना अच्छा है जहां सिर्फ खुशहाली से जीना है पर उससे ज़्यादा ज़रूरी है कि कल कैसा बनाना है। मुझे नहीं पता मेरे पापा ने अपनी नाक़ामयब सी ज़िन्दगी में क्या क्या महसूस किया है लेकिन इतना ज़रूर पता है कि उन्होंने अपनी  ज़िंदगी बनाने के बेहतर बनाने के लिये किसी को धोखा,फरेब या किसी का दिल तो नहीं ही दुखाया होगा। उनकी ज़िंदगी क़ामयाब तो नहीं है लेकिन उन्होंने कोशिश और मेहनत सच्चे दिल से की है। 

उन्होंने हमें आज जिस लायक बनाया है वही उनकी कामयाबी हैं। हम भी कामयाब नहीं है स्ट्रगल कर रहें हैं ज़िन्दगी को जीने के लिए एक फ्यूचर सेक्योर करने के लिए अब भी ज़िन्दगी से लड़ रहे है  और लड़ते रहेंगे मुश्किले बहुत आई है मगर हम मुश्किल का सामना करते आ रहें है और आगे भी करने के लिए लड़ते रहेंगे फिर चाहे वो किस्मत से ही क्यों ना हो। 

पापा मेरी ज़िंदगी का वो हिस्सा है जिन्होंने मुझे लोगों के लिए कभी बुरा सोचना नहीं सिखाया, किसी के साथ गलत करना नहीं सिखाया। एक सबसे खास चीज़ ज़रूर सिखाई है वो है टूट कर फिर खड़े होना मुश्किल कितनी भी बड़ी हो बस मुस्कुराते रहो और जीते रहो। अगर किस्मत में हारना लिखा ही होगा तो हार के जीतने वाले को भी बाज़ीगर कहते हैं और मेरे पापा बाज़ीगर है। 




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